" बेटियाँ"
ना घर में, ना बाहर,और ना माँ की कोख़ में
महफ़ूज नही अब बेटियाँ इस दुनिया में .....
ना बचपन में ,ना ही जवानी में
ये सौंप दी जाती हैं उन अनजान हाथों में
जहाँ जलना,झुलसना, चिल्लाना रह जाता हैं
बस बेटियों की कहानी में......
हर दर्द दुःख सहकर भी अपनों का मान रखती हैं
ख़ुद के मान सम्मान अपने सपनों को खोकर
अपने पिता की परवा करती हैं
बस यही तो रह जाता हैं बेटियों की जिंदगानी में..
सब से अब 'वृंदा' यही सवाल करती हैं
बेटी हूँ लाचार हूँ, बेचारी,मजबूर यही जबाब सुनती हूँ मैं
इस दुनियां में जिंदा रहने के लिए
कब तक अत्याचार सहती रहूंगी मैं
वृंदा शर्मा(बिटटू)
D/० (राधे बाबा)
शुक निकुंज करौली
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