पतंग
" पतंग"
एक कटती पतंग सी उड़ती जा रही थी
कभी किसी के हाथ तो कभी किसी के हाथ डोर थमती जा रही थी।
भूल चुकी थी खुद के अस्तित्व को
एक अपनी नई पहचान खोजने जा रही थी।
टूट कर डाली से सूखे पत्ते की तरह
इस जमीन में मिलती जा रही थी
हँस रही थी मुझ पर वो नई कोपलें या व्यंग्य किए जा रही थी।
छुपा कर खुद के अस्तित्व को
एक नन्हे से पौधे को वृक्ष बनाए जा रही थीं
काकों के इस झुंड में खोये जा रही थी
हंसो से उस श्वेत मन को जाने कहाँ मेला किये जा रही थी
भूल गया था मेरा मन मोती चुगना
जाने कैसे ककों के साथ कीड़े खाए जा रही थी
कैसे निकलू खुद को मतलबी दुनिया से
भानु बेमतलब रिश्ते निभाए जा रही थी
नहीं आता था मुझे दिखावा करना ना जाने अब कैसे जमाने के आगे हंसी जा रही थी
भूलकर कैसे मैं खुद को
बेमतलब बेवज़ह बस जिये जा रही थी
भानुजा शर्मा
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