सपनों को हवा
ख़ुद को अकेले किये जा रही हूँ
एक सच बतलाऊ परेशा हूँ मैं
फिर भी हँसे जा रही हूँ।
काजल बिंदी सब श्रृंगार को छोड़
बेरंग सी अब मैं नजर आ रही हूं
कहि एक दुल्हन छुपी हैं मन में
जिसे मैं मारती जा रही हूँ।
सपनों की गठरी में आग लगाकर
बेचैन सी मैं सोये जा रही हूं
अपनों के ख़्वाओ की ख़ातिर मैं
अपने सपनों को दफ़नाने जा रही हूँ।
उलझी हुई मेरी दुनिया को मैं
अब क्यों सुलझाने जाने जा रही हूं
बुझा दिए थे अंगारे कही मैने
भानु अब उन्हें मैं हवा दिए जा रही हूं।
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