'आत्महत्या करने वालों के साथ हमारी सम्वेदनाएँ'
आत्महत्या- स्वयं को मारना ही आत्महत्या कहलाता है यह सब पढ़कर सुनकर ऐसा लगता है ना कि कोई जानबूझकर तो ऐसा नहीं करेगा कोई खुशी में तो ऐसा नहीं करेगा कोई तो मजबूरी रही होगी उस इंसान की जिसने भी आत्महत्या की होगी।
मेरे दृष्टिकोण से जो मैंने समाज में देखा है समझा है उस हिसाब से निर्धनता ,मानसिक तनाव, बेरोजगारी ये ऐसे कारण हैं जिनकी बजह से लोग आत्महत्या करने की ओर अग्रसर होते हैं। मेरे स्वयं के देखे हुए हालात जिनके कारण एक मनुष्य ने आत्महत्या की मैं वो बताना चाहूंगी नाम और स्पष्ट नहीं करूंगी एक गरीब परिवार जिसमें सिर्फ पिता मजदूरी कर के अपने परिवार का जीवन यापन करता था कुछ बक्त तक उसे रोजगार मिलता रहा और उसके परिवार का भरण पोषण होता रहा कुछ बक्त कर्ज़े के पैसों से परिवार का पेट भरा लोगों ने उसे कर्जा देना भी बंद कर दिया एक समय ऐसा आया उस पर कर्जा भी बढ़ गया और कोई रोजगार भी नहीं था उसके चार बच्चे जो भूख से व्याकुल थे और अपने पिता से सिर्फ बार-बार यह बोल रहे थे खाना कब मिलेगा पिता निशब्द हो कर घर से चला गया कुछ देर बाद बापस आया तो देखा घर के दरवाजे पर लोग खड़े हैं पास जाकर देखा तो ये वही लोग थे जिनसे उसने कर्जा लिया था वो समझ गया कि अपने पैसे बापस लेने आये हैं हिम्मत करके घर में गया सबसे जल्दी ही पैसे लौटने का कहकर उनको वापस भेज दिया बच्चे भूखे रो रहे थे पर आज वो कहि से मांग कर रोटी लाया था जो बच्चों को खिला दी सुबह हुई तो देखा कि अपने बच्चों को छोड़ कर वो पिता दुनिया से जा चुका था फाँसी लगा कर आत्महत्या कर ली।कारण तो स्पष्ट है कि उस व्यक्ति ने फांसी क्यों लगाई उस व्यक्ति के पास रोजगार होता और लोगों का अनावश्यक दवाब ना होता तो वह इंसान आज दुनिया में जीवित होता अपने परिवार के साथ होता है।
उसके बच्चें अनाथ ना हुए होते। मैं उन बच्चों को रोता देख निशब्द थी।
अक्सर हम बेरोजगार युवाओं को ट्रेन के आगे कूदते हुए देखते हैं या समाचार में पढ़ते हैं कभी इस चीज का कारण जानने की कोशिश की या उस बेरोजगार व्यक्ति की मानसिक पीड़ा को जानने की कोशिश की यदि उसने अपनी व्यथा किसी को बताई भी होगी तो लोगों ने सिर्फ मजाक उड़ाया होगा यही तो होता है हमारे समाज में किसी को सहारा देने के बजाय उसका मजाक उड़ाया जाता है क्या यह सही है एक बेरोजगार युवा के द्वारा कही गई कुछ बातें-
मैं अंदर ही अंदर घुटा जा रहा था
समाज के दबाव को सहता जा रहा था
कहना बहुत कुछ था सब से.......
पर अपनों का साथ बिखरता जा रहा था
जो दोस्त साथ पढ़े थे मेरे कामयाब थे वो
मैं इस बेरोजगारी के सितम को सहता जा रहा था
रिश्तेदार भी अब तंज कसने लगे थे मुझ पर
मैं जीते जी अब मरता जा रहा था
सहना पाऊंगा अब इस समाज के तंजो को
यह कहकर वो फांसी पर झूलने जा रहा था
अलविदा कह कर वह आखरी लफ्जों में
कागज को अपने बिखेरे जा रहा था।
कहनी बहुत बाते थी आज उसको
अब बस खामोशी से सब सुनता जा रहा था
आज भानु आत्महत्या का दर्द ....
उसके परिवार में बिखरा जा रहा था।
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