" किशोरी जी और रुकमणी संवाद"
सुन सुन राधे जू का वर्णन
आज मन में लालसा जागी हैं
सुंदरता का अभिमान लिए रानी
ठकुरानी के दर्शन को जाती हैं।।
द्वार पर ललिता सखी देखी
रूप देव उन्हें श्रीजी समझ जाती है
मैं तो दासी हूँ कहती है ललिता सखी
श्री जी निज कक्ष में बिराजी है
आगे पहुंची जब रुक्मणी रानी
विशाखा सखी देख चरण पड़ जाती हैं
उठो रानी मैं स्वामिनी नहीं ....
किशोरी अंदर शयन कक्ष में बिराजी है
अचंभित हुई है द्वारिका की रानी
सेवकाओ का रूप देख अहम भूल जाती है
देख किशोरी का रूप रूक्मिणी
श्री जी के चरणन में गिर जाती हैं
हई वावरी निरख रूप को....
अब संसार को तुच्छ समझने लग जाती हैं
भेट करूं तो क्या करूं किशोरी
अब खुद को समर्पण कर जाती है
श्रीजी कहती तुम धन्य हो रानी
हम शायद प्रेम करना नही जानती है
तभी तो श्याम हमें छोड़कर आए
सुनते ही नाम कृष्ण को रोने लग जाती है
रहते कृष्ण द्वारका में हैं किशोरी
मन वो भानुजा ब्रज में छोड़ आए हैं
विरह में राधा राधा रटते हैं मोहन
और तब स्वयं राधेश्याम बन जाते हैं
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