" गुरुदेव अन्तर्यामी हो"
*घट घट वासी हो ,गुरुदेव अंतर्यामी हो
सबरे जगत से न्यारे, गुरुदेव प्यारे
कृपा करो हे करुणानिधि हम पर
आई शरण तुम्हारी हूँ।
नहीं जानती रीति नीति,ना ही विधि-विधान मुझे आता है।
मुझे तो बस गुरु चरणों में शीश झुकाना भाता है।।
भेंट स्वरूप क्या मैं लाऊं, यह भी समझ ना पाती हूं।
सर्वस्व आप को सौंपा है खुद को अर्पण कर जाती हूं।।
नेत्रों से नहीं रुक पाते अश्रु दर्शन जब ना कर पाती हूं।
मन मंदिर में बैठे आप हो मैं अंत फिर क्यों जाती हूं।।
रूप निहारु श्री जी का भानु, आपकी छवि मैं पाती हूं
पुण्य किये होंगे कई जन्मों के मैने तब चरणारविन्द दर्शन पाती हूँ।।
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