" बैकुंठ और वृंदावन"
ना भावे मोहे बैकुंठ नारायण।
मोये तो भावे मेरो वृन्दावन।।
बैकुंठ में चापत श्री चरण तुम्हारे
यहाँ श्रीजी के चापत तुम नारायण।
अष्ठ पहर सेवा में श्री रहती।
यहाँ रहवत तुम नारायण।
ब्रह्मा बने रहते तुम वहाँ स्वामी।
यहाँ ब्रह्मा सखा हमारो नारायण।।
हाथ जोड़ वहां खड़ी रहे गोपी।
यहां तुम्हें नाच चावत नारायण।।
वहां प्रेम को पाठ पढ़ावत तुम हो।
यहाँ गोपी प्रेम सिखावत नारायण।।
भानुजा के प्राण है वृषभानु दुलारी।
प्रणन के प्राण तुम हो नारायण।।
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