"अजीब कशमकश"
घर भी अब पराया सा लगता है
जाने क्यों अब अपनापन भी खारा सा लगता है
अब जिये भी तो कैसे हम ये जीना भी अब मजबूरी सा लगता है।।
भरे पूरे घर में शुरू से रहते थे हम।
अब जाने क्यों ये घर मकान सा लगता है।।
ख़ामोश ही तो रहती हु अक्सर अब में।
लोगों को मेरा चुप रहना भी अब व्यंग सा लगता है।।
देख कर सबको मुस्कुराना जो पड़ता है
किस से कहे ये मुस्कुराना भी अब मजबूरी सा लगता है।।
कई दफा खाने की आदत थी ना मुझे ।
बिन खाये पेट भरा भरा सा लगता है।।
कुछ तो मुझे ' भानु' खुद मे बाकी रहने दो।
हर बार मेरा ही झुकना अब बुरा सा लगता है।।
अद्भुत
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार🙏
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